में ही नष्ट हो जाता है। यह जीव संसार के मिथ्या सुखो की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार का फैलाव (प्रपच) रचता है। यह जीव पिता, माता, पुत्र तथा कुटुम्ब के लोगो मे मन से (व्यर्थ ही) फूला हुआ फिरता है। कबीरदास कहते हैं कि हे पागल जीव, तुम सम्पूर्ण भ्रमो को छोडकर भगवान का भजन करो।
- अलंकार—(i) पुनरुक्ति प्रकाश—न कछुरे न कछु रे।
- (ii) अनुप्रास—सरीर साधु सगति।
- (iii) रूपकातिशयोक्ति—मंदिर।
विशेष—(i) ससार की निस्सारता का वर्णन है।
(ii) सत्सग की महिमा का प्रतिपादन है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि—
बिनु सत्संग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ कि सोई।
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कहा नर गरबसि थोरी बात।
मन दस नाज, टका दल गंठिया, टेढ़ौ टेढ़ौ जात॥ टेक॥
कहा लै आयो यहु धन कोऊ, कहा कोऊ लै जात।
दिवस चारि की है पतिसाही ज्यूँ बनि हरियल पात॥
राजा भयौ गांव सौ पाये, टका लाख दस ब्रात॥
रावन होत लंक कौ छत्रपति, पल मै गई बिहात।
माता पिता लोक सुत बनिता, अंति न चले संगात।
कहै कबीर रांम भजि बौरे, जनम अकारथ जात॥
शब्दार्थ—गरबसि=गर्व करते हो। गंठिया=गाँठ। हरियल=हरे। व्रात=वरात, समूह। वनिता=स्त्री। विहात=नष्ट हो गई।
सन्दर्भ—कबीर ससार की असारता का प्रतिपादन करते है।
भावार्थ—रे मानव, थोडे से ऐश्वर्य को प्राप्त करके क्यो घमण्ड करता है? तुम्हारे पास दस मन नाज है और तुम्हारी गाँठ मे पाँच आने पैसे (अत्यल्प सम्पत्ति) है। बस, इसी को पाकर तुम टेढ़े-टेढ़े चलने (इतराने) लगे हो। इस सासारिक वैभव को क्या कोई साथ लेकर आता है, और क्या कोई इसे अपने साथ ले जाता है? यह सब वादशाही वन के हरे पत्ते की तरह चार दिन (अत्यल्प समय) की है। जैसे वन के पत्ते चार दिन बाद सूख जाते हैं, उसी प्रकार ससार का समस्त धन वैभव शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। तुम राजा बन गये, तुम्हे सौ गाँव प्राप्त हो गये, दस लाख रुपये मिल गये तथा दस लोगो का समूह भी तुम्हारे साथ हो गया। पर इस सबसे क्या होता है? रावण तो सोने की लंका का राजा था। परन्तु एक क्षण भर मे उसका समस्त वैभव नष्ट (ऐश्वर्य) नष्ट हो गया। माता, पिता, परिजन, पुत्र, स्त्री—इसमें से कोई भी अन्तत साथ नही जाता है। कबीर कहते हैं कि "हे सासारिक सुख-वैभव के पीछे पागल बने हुए मनुष्य इस प्रकार तुम्हारा