अलंकार —रूपक- आसण पवन ।
(।।) वकोत्कि- क्या सीगी' 'लगाने ।
विशेष— (।)धार्मिक वाह्याचार, विधि-विधान आदि केवल आडम्बर है। ये व्यर्थ है ।
(।।)कबीर का कहना है कि अपने प्राणों पर नियन्त्रण रख कर स्व-स्वरूप का साक्षात्कार करना चाहिए । इस प्रकार ज्ञान ओर भक्ति मे , शद्ध चैतन्य स्वरुप मे प्रतिष्टित हो जाना चाहिए । ऐसी स्थिति मे अपने सहज धम मे प्रतिष्टित रहने पर पूजा ओर साधना के बाहरी उपचारों की आवश्यकता नही रहती है।
(३४६)
ताथै कहिये लोकाचार,
वेद कतेबक थै ब्यौहार ॥टेक॥
जारि बारि करि आवै देहा,मूंवा पीछै प्रीति सनेहा ॥
जीवत पित्रहि मारहि डंगा, मूंवा पित्र ले घालै गगा ॥
जीवत पित्र कूं अन न ख्वावै,मूवां पाछै प्यड भरांवै ॥
जीवत पित्र कूं बोलै अपराध, मुवां पीछै देहि सराधन॥
कहि कबीर मोहि अचिरज आवै, कौऊवा खाइ पित्र क्यू पावै ॥
शब्दार्थ-कतेव=कुरान,धमं ग्रन्थ । मूवां=मरे । डगा= डडा। छाले=फेकते है।
सन्दर्भ- कबीरदास कहते है कि वाह्माचार केवल दम्भ प्रेरित होते हैं ।
भावार्थ- वेद और कुरान लौकिक आचरण का वर्णन करते हैं। इस कारण उनकी बातो को मात्र लोकाचार कहा जाना चाहिए । व्यक्ति अपने सम्बनि्धियो के मृत शरीर को जलाकर उसका चिन्ह तक मिटा देते है और फिर उसके बाद रो-पीट कर उसके प्रति अपनी प्रीति प्रकट करते हैं । पुत्र जीवित पिता को लट्ठ से मारता है और मरने पर उसकी अस्थियों को गंगा के जल मे डालने के लिए पहुंचता है । वह जीवित पिता को तो भोजन भी नही देता है और मरने पर उसकी वुभुक्षा की शाति करने के लिए पिण्डदान का दिखावा करता है । जीते जी पिता को अपने दोप देता है(और उसके प्रति कटु शब्द कहता है) और मरने पर श्राद्ध के नाम पर श्रद्धा की अभिव्यक्ति का स्वाग करता है। कबीरदास कहते है कि इन समस्त वाह्माचारो को देख कर मुझको आश्चर्य होता है। कौए श्राद्ध के जिस अन्न को खाते हैं,उसे पितृ-गण क्यो कर प्राप्त कर सकते हैं?
अलकार-(।) पदमैश्री--जारि बारि।
- (।।) वकोक्ति--कौवा ,पावै।
विशेष-(।) सच्ची भावना से रहित कमं काण्ड का खडन है।
(।।) कबीर ने यह नही विचार किया कि जो पुत्र जीवित पिता की पूरी श्रद्धा भक्ति से सेवा करता है, वह यदि आपके मरने पर श्राद्ध आदि करता है, तो