सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६६८]
[कबीर
 

 

(२४१)

फिरत कत फूल्यौ फूल्यौ ।
जब दस मास उरघ मुखि होते, सो दिन काहे भूल्यौ ॥ टेक ॥
जौ जारै तौ होई भसम तन, रहत कृम ह्यूँ जाई ।
कांच कुंभ उघक भरि राख्यो ,तिनको कौन बडाई ।
ज्यू माषो मबु सचि करि , जोरि धन कोनो ।
मूये पीछै लेहू लेहू करि , प्रेत रहन क्यूं दीनू ॥
ज्यूं घर नारी सग देखि करि, तब लग संग सुहेलौ ।
मरघट घाट खैचि करि राखे ,वह देखिहु हस अकेलौ ॥
रांम न रमहु मदन कहा भूले, परत अंधेरे कूवा ।
कहै कबीर सोई आप बधाधौ, ज्यूं नलनी का सूवा ॥

शब्दार्थ-उरघ मुख=ऊपर को मुख किए हुए अर्थात उलटा मुख किए हुए । माषी= मक्खी, शहद की मक्खी से तात्पय्ं हे । घर नारि=व्याहना स्त्री, व्याही हुई ।सजन सहेली=सज्न एव साथी । कूवा= कुँआ , यहाँ तात्पर्य अग्यान का कुआ । नलिनी=पोले वास की नलो जो जाता पकडने के काम मे आती हे।

सन्दर्भ- सनार के वाह्य आकर्षक ,रूप पर मोहित एव ऐश्वर्य मे मदसत मानव को कबीरदास भावधान करते है ।

भावार्थ-है भोले मानव। तू गर्व मे फूला हुआ क्यो फिर रहा है ? क्था तू उस व्यथा को भूल गया जो तुझे गर्व मे दस माह तक उलटे लटके रहने के कारण हुई थी ? जन्म के समय जितनी व्यथा हुई थी,मृत्यु के समय भी वैसी हो व्यथा होगी, यह सकेत करते हुए कबीर कहते है कि मरने पर तेरा शरीर जब जलाया जाएगा, तब भस्म होकर समाप्त हो जाएगा और यदि जलाया नहि गया,और यों ही पद रहा, तो उने फोडे-म फोडे खो जाऐंगे । इस शरीर की इतनी ही महिमा हे जितनी महिमा पानी से भरे हुए कच्चे घडे की होती है, जो शीघ्र हो फूट जाता है। जिस प्रकार मधुमख्या तनिक-तनिक (थोडा-थोडा)करके शहद इकट्ठा करते है, उसी प्रकार तुमने भी थोडा-थोडा करके कुछ धन सचित कर लिया है ;तुम्हारे मरने के समय लोग जेलो,जेलो कहने हुए इस धन को वापस मे बांट लेगी और तुम्हारे इस शरीर को उठाकर बाहर फैक देने, क्योंकि प्रेत को कौन घर में रहना ।