करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ।
मति अति नीच ऊँचि रुचि पाछी । चहिअ अमिय जग जुरइ न छाछी ।
इत्यादि ।
(१६)
जिहि दुरमति डोल्यौ संसारा, परे असूझि वार नहीं पारा ॥
बिख अमृत एकै करि लीन्हां,जिनि चीन्हां सुख तिहकू हरि दींन्हां ॥
सुख दुख जिनि चीन्हां नहीं जानां, ग्रासे काल सोग रुति माना ॥
होइ पतग दीपक मै परई, भ्कूठै स्वादि लागि जीव जरई ॥
कर गहि दीपक परहि जु कूपा, यहु अचिरज हम देखि अनूपा ॥
ग्यांनहीन ओछी मति बधा, जुखा साध करतूति असाधा ॥
दरसन समि कछू साध न होई, गुर समान पूजिये सिध सोई ॥
भेष कहा जे बुधि बिसूधा, बिन परचै जग बूड़नि बूड़ा ॥ जदपि रबि कहिये सुर आही, भ्कूठे रबि लींन्हा सुर चाही ॥
कबहूँ हुतासन होइ जराबै, कबहूँ अखड धार वरिषावै ॥
कबहूँ सीत काल करि राखा, तिहू प्रकार दुख देखा ॥
ताकूं सेवि मूढ़ सुख पावै, दौरे लाभ कूं सूल गवावै ॥
अछित राज दिने दिन होई, दिवस सिराइ जनम गये खोई ॥
मृत काल किनहूँ नही देखा, माया मोह धन अगम अलेखा ॥
भ्कूठै भ्कूठ रह्यो उरझाई, साचा अलख जग लख्या न जाई ॥
साचै नियरै भ्कूठै दूरी, विष कूँ कहै संजीवन_मूरी ॥
शब्दार्थ-दुरमति=कुबुध्दिवाले, दुर्बुद्ध लोग । डोल्यौ=भटकते फिरते हैं ।
रुति=रुचि, अनुरक्ति । बाधा=आबद्ध । साध=साधु । असाधा=असाधु, दुष्ट । विसूधा=विकृत हो जाए । सजीवनी=जीवन देने वाली ।
सन्दर्भ--कबीर मोह-भ्रम गुप्त अज्ञानी जन का वर्णन करते हैं ।
भावार्थ--जो दुबुँध्दि वाले व्यक्ति इस ससार के माया जाल मे भटकते रहते हैं, उनके लिए इस भवसागर का आर-पार नही है। ऐसे व्यक्ति विपयासक्ति रूपी विष और ईश्वर प्रेम रूपी अमृत मे कोई भेद नही समभ्कते हैं । जो इस भेद को जान लेते हैं, उनको भगवान आनन्द प्रदान करते हैं। जो ईश्वर-प्रेम के सुक्ष तथा विषयो के दुख के अन्तर को नही समभ पाए हैं, वे काल से ग्रसित रहे तथा उन्होने शोक को स्वीकार किया । ऐसे व्यक्ति मिथ्या विषय भोग के आनन्द के पीछे पतगो की भाँति विषय-वासना के दीपक मे पडते हैं और नष्ट होते हैं। हमने यह एक अनोखा आशचर्य देखा है कि व्यक्ति अपने हाथ मे ज्ञान का दीपक होने पर भी विषयो के कुएँ मे गिरते है । ऐमे ज्ञानहीन व्यक्ति ओछी बुद्धि (कुबुद्धि) द्वारा आबद्ध रहते हैं। वे चेहरे से (देखने मे) साधु लगते हैं, परन्तु कर्मो से असाधु