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पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३९७

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[कबीर
 

(२८०)

इहि विधि रांम सू ल्यौ लाइ।
चरन पाषे निरति करि, जिभ्या बिनां गुण गाइ॥ टेक॥
जहाँ स्वांति बूदन सीप साइर, सहजि मोती होइ।
उन मोतियन मै नीर पोयौ, पवन अम्बर धोइ॥
जहाँ धरनि बर्षै गगन भीजै, चन्द सूरज मेंल।
दोइ मिलि तहाँ जुड़न लागे, करत हंसा केलि॥
एक बिरष भीतरि नदी चाली, कनक कलस समाइ॥
पंच सुवटा आइ बैठे, उदै भई बनराइ॥
जहाँ बिछट्यौ तहाँ लाग्यौ, गगन बैठो जाइ।
जन कबीर बटाऊवा जिनि मारग लियौ चाइ॥

शब्दार्थ—ल्यौलाइ=लौ लगा। साइर=सागरा। नीर=पानी, काति। हंसा=शुद्ध बुद्ध जीवात्मा। विरष=वृक्ष। नदी=सुषुम्ना। कनक-कलश=सोने का कलशा, सहस्रार। पच सुवटा=पाच तोते (पच प्राण—प्राण, अपान, उदान, समान तथा व्यान)। बनराई=बनराजी, विभिन्न सद्वृत्तियाँ। जन=भक्त। बटाऊवा=पार्थक। चाइ=चाव पूर्वक। मारग लीयौ=मार्ग अपना लिया है।

सन्दर्भ—कबीरदास कायायोग की साधना का वर्णन करते हैं।

भावार्थ—रे साधक! तू भगवान राम मे इस प्रकार लौ लगा। उनके चरण-कमलो के समीप नृत्य कर। जीभ के बिना उनका गुण-गान कर अर्थात् मन मे उनके गुणो का स्मरण कर। जहाँ न स्वाति नक्षत्र के जल की बूँद गिरती है, न सीपी है और न सागर है, वही मोक्ष रूपी मोती सहज रूप से प्राप्त होता है। अभिप्राय यह है कि आत्म समर्पण करने पर कार्य-कारण सम्बन्धो से प्रतीत सहज अनुभूति रूप मोती प्राप्त होगा। उस मोती मे परमानन्द रूप काति समायी हुई है और प्राण रूप पवन एव ज्ञान-रूप आकाश उसे निर्मल रखते हैं। अभिप्राय यह है कि प्राण-साधना एव ज्ञानानुभूति के द्वारा उसको सम्पूर्ण विकारो से रहित बना दिया गया है।

इस अवस्था मे कुण्डलिनी रूपी पृथ्वी से अमृत झरता है और ब्रह्मरन्ध्र रूप गगन उस अमृत का पान करता है। अभिप्राय यह है कि कुण्डली-शक्ति के जाग्रत होने पर शून्य-गगन-मंडल अमृत की वर्षा से अभिसिंचित हो जाता है। इस अवस्था मे चन्द्र और सूर्य (इडा-पिंगला) नाड़ियाँ मिलकर तदाकार होने लगती हैं तथा ज्ञानी जीवात्मा आनन्दमग्न हो जाता है। इस शरीर रूपी वृक्ष में सपुम्ना रूपी नाडी प्रवाहित होती है और सहस्रार रूपी स्वर्ण कलश आध्यात्मिक आनन्द द्वारा आपूरित हो जाता है।

इस अवस्था मे पचप्राण यहाँ केन्द्रित हो जाते हैं और अन्त करण मे सद्वृवृत्तियो का उदय हो जाता है, मानो वनस्थली हरी-भरी हो उठी हो। (कतिपय