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पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३३२

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ग्रन्थावली]
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कहती है कि हे प्रभु! अब देर मत कीजिए। मुझको अपना समझकर अब शीघ्र ही दर्शन दीजिए।

अलंकार—(i) उदाहरण—जैसें कलपै।
(ii) गूढोक्ति—क्यूँ सचुपावै।

विशेष—पत्नी के रूप में ईश्वर प्रेम का वर्णन है। जीवात्मा दाम्पत्य विरह का अनुभव करती है। यह रहस्यवादी भक्ति की व्यजना है।

तुलना कीजिए—

कब की बैठी जोबती, बाट तिहारी राम।
जिय तरसै तुव मिलन कूँ, मन नाहीं विश्राम।—कबीर
अबहूँ मया दिस्टि करि, नाह निठुर! घर आउ।
मन्दिर उजार होत है नव कै आइ बसाउ।—जायसी
पिया बिनु नागिन कारी रात।

xxx

मन्त्र न फुरै जन्त्र नहिं लागे आपु सिरानो जात।
सूर स्याम बिनु बिकल बिरहिनी मुरि मुरि करवट खात। —सूरदास
घडी एक नहिं आवड़ै, तुम दरसण बिनु मोइ।
तुम हो मेरे प्राण जी, कासूँ जीवण होइ।

xxx

धान न भावै नींद न आवै, विरह सतावै मोइ।
घायल सी घूमत फिरूँ, दरद न जाणै कोइ।

xxx

पथ निहारूँ, डगर बुहारूँ, ऊभी मारग जोइ।
मीराँ के प्रभु कबरे मिलोगे, तुम मिलियाँ सुख होइ।—मीराँबाई

( २२५ )

सो मेरा रांम कबै घरि आवै,
ता देखें मेरा जिय सुख पावै॥ टेक॥
बिरह अगिनि तन दिया जराई, बिन दरसन क्यूं होइ सराई।
निस बासुर मन रहै उदासा, जैसे चातिग नीर पियासा॥
कहै कबीर अति आतुरताई, हमकौं बेगि मिलौ राम राई॥

शब्दार्थ—सराई=शीतल।

सदर्भ—पूर्व छन्द (२२४) के समान।

भावार्थ—विरहविकला जीवात्मा कहती है कि 'हे मेरे पति राम, मेरे घर कब आओगे? जिससे आपके दर्शन करके मेरा हृदय सुख प्राप्त करे। विरह रूपी अग्नि ने मेरे शरीर को जला दिया है। आपके दशन रूपी जल के बिना वह किस प्रकार शीतलता (शाति) का अनुभव कर सकता है? जिस प्रकार चातक स्वाति