आरण्यक
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आरण्यक हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च ग्रन्थ वेदों का गद्य वाला खण्ड है। ये वैदिक वाङ्मय का तीसरा हिस्सा है और वैदिक संहिताओं पर दिये भाष्य का दूसरा स्तर है। इनमें दर्शन और ज्ञान की बातें लिखी हुई हैं, कर्मकाण्ड के बारे में ये चुप हैं। इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। वेद, मंत्र तथा ब्राह्मण का सम्मिलित अभिधान है। मंत्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् (आपस्तंबसूत्र)। ब्राह्मण के तीन भागों में आरण्यक अन्यतम भाग है।
सायण के अनुसार इस नामकरण का कारण यह है कि इन ग्रंथों का अध्ययन अरण्य (जंगल) में किया जाता था। आरण्यक का मुख्य विषय यज्ञभागों का अनुष्ठान न होकर तदंतर्गत अनुष्ठानों की आध्यात्मिक मीमांसा है। वस्तुत: यज्ञ का अनुष्ठान एक नितांत रहस्यपूर्ण प्रतीकात्मक व्यापार है और इस प्रतीक का पूरा विवरण आरण्यक ग्रंथो में दिया गया है। प्राणविद्या की महिमा का भी प्रतिपादन इन ग्रंथों में विशेष रूप से किया गया है। संहिता के मंत्रों में इस विद्या का बीज अवश्य उपलब्ध होता है, परंतु आरण्यकों में इसी को पल्लवित किया गया है। तथ्य यह है कि उपनिषद् आरण्यक में संकेतित तथ्यों की विशद व्याख्या करती हैं। इस प्रकार संहिता से उपनिषदों के बीच की श्रृंखला इस साहित्य द्वारा पूर्ण की जाती है।
‘आरण्यक’ शब्द का अर्थ
[संपादित करें]आरण्यक ग्रन्थों का आध्यात्मिक महत्त्व ब्राह्मण ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक है। ये अपने नाम के अनुसार ही अरण्य या वन से सम्बद्ध हैं। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे ‘आरण्यक’ कहते हैं- अरण्ये भवम् आरण्यकम्। आरण्यक ग्रन्थों का प्रणयन प्रायः ब्राह्मणों के पश्चात् हुआ है क्योंकि इसमें दुर्बोध यज्ञ-प्रक्रियाओं को सूक्ष्म अध्यात्म से जोड़ा गया है। वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए आत्मतत्त्व और ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिए मुख्य रूप से इन ग्रन्थों की रचना हुई है-ऐसा माना जाता है।
आरण्यक ग्रन्थों का विवेच्य विषय
[संपादित करें]आरण्यक ग्रन्थ वस्तुतः ब्राह्मणों के परिशिष्ट भाग हैं और उपनिषदों के पूर्वरूप। उपनिषदों में जिन आत्मविद्या, सृष्टि और तत्त्वज्ञान विषयक गम्भीर दार्शनिक विषयों का प्रतिपादन है, उसका प्रारम्भ आरण्यकों में ही दिखलायी देती है। आरण्यकों में वैदिक यागों के आध्यात्मिक और दार्शनिक पक्षों का विवेचन है। इनमें प्राणविद्या का विशेष वर्णन हुआ है। कालचक्र का विशद वर्णन तैत्तिरीय आरण्यक में प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत का वर्णन भी इस आरण्यक में सर्वप्रथम मिलता है।
आरण्यक ग्रन्थों का महत्त्व
[संपादित करें]वैदिक तत्त्वमीमांसा के इतिहास में आरण्यकों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया जाता है। इनमें यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। इनमें मुख्य रूप से आत्मविद्या और रहस्यात्मक वि के विवरण हैं। वन में रहकर स्वाध्याय और धार्मिक कार्यों में लगे रहने वाले वानप्रस्थ-आश्रमवासियों के लिए इन ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राणविद्या की महिमा का विशेष प्रतिपादन किया गया है। प्राणविद्या के अतिरिक्त प्रतीकोपासना, ब्रह्मविद्या, आध्यात्मिकता का वर्णन करने से आरण्यकों की विशेष महत्ता है। अनेक ऐत और सांस्कृतिक तथ्यों की प्रस्तुति के कारण भी आरण्यक ग्रन्थ उपोदय हैं। वस्तुतः ये ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों को जोड़ने वाली कड़ी जैसे हैं, क्योंकि इनसे उपनिषदों के प्रतिपाद्य विषय और भाषा शैली के विकास का अध्ययन करने में सहायता मिलती है।
प्रमुख आरण्यक
[संपादित करें]आरण्यकों के मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित है :
ऐतरेय आरण्यक
[संपादित करें]इसका संबंध ऋग्वेद से है। ऐतरेय के भीतर पांच मुख्य अध्याय (आरण्यक) हैं जिनमें प्रथम तीन के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं। डाक्टर कीथ इसे निरुक्त की अपेक्षा अर्वाचीन मानकर इसका रचनाकाल षष्ठ शताब्दी विक्रमपूर्व मानते हैं, परंतु वस्तुत: यह निरुक्त से प्राचीनतर है। ऐतरेय के प्रथम तीन आरण्यकों के कर्ता महिदास हैं इससे उन्हें ऐतरेय ब्राह्मण का समकालीन मानना न्याय्य है।
शांखायन
[संपादित करें]इसका भी संबंध ऋग्वेद से है। यह ऐतरेय आरण्यक के समान है तथा पंद्रह अध्यायों में विभक्त है जिसका एक अंश (तीसरे अ. से छठे अ. तक) कौषीतकि उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।
तैत्तिरीय आरण्यक
[संपादित करें]दस परिच्छेदों (प्रपाठकों) में विभक्त है, जिन्हें "अरण" कहते हैं। इनमें सप्तम, अष्टम तथा नवम प्रपाठक मिलकर "तैत्तिरीय उपनिषद" कहलाते हैं।
बृहदारण्यक
[संपादित करें]वस्तुत: शुक्ल युजर्वेद का एक आरण्यक ही है, परंतु आध्यात्मिक तथ्यों की प्रचुरता के कारण यह उपनिषदों में गिना जाता है।
तवलकार (आरण्यक)
[संपादित करें]सामवेद से संबद्ध एक ही आरण्यक है। जिसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में कई अनुवाक। चतुर्थ अध्याय के दशम अनुवाक में प्रख्यात तवलकार (या केन) उपनिषद् है।
आरण्यक ग्रन्थों का विभाजन
[संपादित करें]हर वेद का एक या अधिक आरण्यक होता है। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यकों का वेदानुसार परिचय इस प्रकार है-
- ऋग्वेद
- ऐतरेय आरण्यक
- कौषीतकि आरण्यक या शांखायन आरण्यक
- सामवेद
- तावलकर (या जैमिनीयोपनिषद्) आरण्यक
- छान्दोग्य आरण्यक
- यजुर्वेद
- शुक्ल
- वृहदारण्यक
- कृष्ण
- तैत्तिरीय आरण्यक
- मैत्रायणी आरण्यक
- शुक्ल
- अथर्ववेद
- (कोई उपलब्ध नहीं)
यद्यपि अथर्ववेद का पृथक् से कोई आरण्यक प्राप्त नहीं होता है, तथापि उसके गोपथ ब्राह्मण में आरण्यकों के अनुरूप बहुत सी सामग्री मिलती है।