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आर्य प्रवास सिद्धान्त

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इंडो-यूरोपियन माइग्रेशन की योजना, जिनमें से इंडो-आर्यन माइग्रेशन, ca से एक हिस्सा है। कुरगन परिकल्पना के अनुसार 4000 से 1000 ईसा पूर्व:
* मैजेंटा क्षेत्र ग्रहण की गई उर्मिअत (समारा संस्कृति, श्रेनी स्टॉग संस्कृति और बाद की यम��ा संस्कृति) से मेल खाता है।
* लाल क्षेत्र उस क्षेत्र से मेल खाता है जो शायद भारत-यूरोपीय बोलने वाले लोगों द्वारा सीए तक बसाया गया है। 2500 ई.पू.
* नारंगी क्षेत्र 1000 ईसा पूर्व से मेल खाता है।स्रोत: क्रिस्टोफर आई। बेकविथ (2009), एम्पायर्स ऑफ़ द सिल्क रोड, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पी .30।[1]

आर्य प्रवास सिद्धान्त (English - Indo-Aryan Migration Theory) इंडो-आर्यन लोगों के भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर से एक मूल के सिद्धांत के आसपास के परिदृश्यों पर चर्चा करते हैं, एक हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार (इंडो-आर्यन भाषाएं) बोलने वाले एक जातीय जातीय भाषा समूह, जो उत्तर भारत की प्रमुख भाषाएं हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर इंडो-आर्यन मूल के प्रस्तावक आम तौर पर मध्य एशिया से लगभग 2000 ईसा पूर्व शुरू होने वाले क्षेत्र और अनातोलिया (प्राचीन मितानी) में आने वाले प्रवासियों को लेटप्पन काल के दौरान एक धीमी गति से प्रसार के रूप में मानते हैं,[2] जिसके कारण एक भाषा बदलाव हुआ। उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप। ईरानी भाषाओं को ईरानियों द्वारा ईरान में लाया गया था, जो भारत-आर्यों से निकटता से संबंधित थे।[3][4][5][6]

प्रोटो-इंडो-ईरानी संस्कृति, जिसने इंडो-आर्यन्स और ईरानियों को जन्म दिया, कैस्पियन सागर के उत्तर में मध्य एशियाई स्तेपी पर विकसित हुआ जिसे सिंतशता संस्कृति (2100-1800 ईसा पूर्व) [Kazakhstan] वर्तमान रूस और कजाकिस्तान में, और अरल सागर के चारों ओर एंड्रोनोवो संस्कृति (1800-१४०० ईसा पूर्व), के रूप में विकसित हुई। प्रोटो-इंडो-ईरानियों ने फिर दक्षिण की ओर बैक्ट्रिया-मैरेजा संस्कृति की ओर प्रस्थान किया, जहाँ से उन्होंने अपनी विशिष्ट धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं को उधार लिया। भारत-आर्य ईरानियों से लगभग 1800 ईसा पूर्व से 1600 ईसा पूर्व तक अलग हो गए, जिसके बाद भारत-आर्य लोग अनातोलिया और]] दक्षिण एशिया (आधुनिक अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान और नेपाल) के उत्तरी भाग में चले गए, जबकि ईरानी ईरान में चले गए, दोनों अपने साथ हिन्द-ईरानी भाषाएँ लेकर आए।

इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की खोज के बाद, 18 वीं शताब्दी के अंत में एक इंडो-यूरोपीय लोगों द्वारा प्रवासन पहली बार परिकल्पित किया गया था, जब पश्चिमी और भारतीय भाषाओं के बीच समानताएं नोट की गई थीं। इन समानताओं को देखते हुए, एक एकल स्रोत या मूल प्रस्तावित किया गया था, जिसे कुछ मूल मातृभूमि से पलायन द्वारा फैलाया गया था।

यह भाषायी तर्क पुरातत्व, नृविज्ञान, आनुवांशिक, साहित्यिक और पारिस्थितिक अनुसंधान द्वारा समर्थित है। आनुवंशिक शोध से पता चलता है कि उन प्रवासियों ने भारतीय आबादी के विभिन्न घटकों की उत्पत्ति और प्रसार पर एक जटिल आनुवंशिक पहेली का हिस्सा बनाया है। साहित्यिक शोध से विभिन्न, भौगोलिक रूप से अलग, इंडो-आर्यन ऐतिहासिक संस्कृतियों के बीच समानता का पता चलता है। पारिस्थितिक अध्ययन से पता चलता है कि दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में व्यापक शुष्कता के कारण यूरेशियन स्टेप्स और भारतीय उपमहाद्वीप, दोनों में पानी की कमी और पारिस्थितिक परिवर्तन हुए, जिससे दक्षिण मध्य एशिया, अफगानिस्तान, ईरान और भारत में शहरी शहरी संस्कृतियों का पतन हुआ। , और बड़े पैमाने पर पलायन को ट्रिगर करता है, जिसके परिणामस्वरूप शहरी लोगों के बाद के प्रवासियों का विलय शहरी संस्कृतियों के साथ होता है।

युद्ध रथ के आविष्कार के बाद, लगभग 1800 ईसा पूर्व में भारत-आर्यन पलायन शुरू हुआ, और इंडो-आर्यन भाषाओं को लेवांत और संभवतः इनर एशिया में लाया गया। यह पोंटिक-कैस्पियन स्टेपी, पूर्वी यूरोप में घास के मैदानों के एक बड़े क्षेत्र, जो 5 वीं से 4 वीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व में शुरू हुआ था, और इंडो- इंडो-यूरोपीय मातृभूमि से भारत-यूरोपीय भाषाओं के प्रसार का हिस्सा था। यूरेशियन स्टेप्स से यूरोपीय पलायन, जो लगभग 2000 ईसा पूर्व में शुरू हुआ था। "

सिद्धांत बताता है कि ये इंडो-आर्यन बोलने वाले लोग आनुवंशिक रूप से विविध लोगों के समूह हो सकते हैं जो साझा सांस्कृतिक मानदंडों और भाषा से एकजुट थे, जिन्हें आर्य के रूप में संदर्भित किया गया था, "महान"। इस संस्कृति और भाषा का प्रसार संरक्षक-ग्राहक प्रणालियों द्वारा हुआ, जिसने इस संस्कृति में अन्य समूहों के अवशोषण और उत्पीड़न की अनुमति दी, और अन्य संस्कृतियों पर मजबूत प्रभाव की व्याख्या की जिसके साथ इसने बातचीत की।

उपर्युक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन १९वीं शताब्दी के अन्त में तब किया गया जब भारोयूरोपीय भाषा-परिवार के सिद्धान्त की स्थापना हुई ।[7] जिसके अंतर्गत, भारतीय भाषाओं में यूरोपीय भाषाओं से कई शाब्दिक समानताएं दिखीं । जैसे घोड़े को ग्रीक में इक्वस eqqus, फ़ारसी में इश्प और संस्कृत में अश्व कहते हैं । इसी तरह, भाई को लैटिन-ग्रीक में फ्रेटर (इसी से अंग्रेज़ी में फ्रेटर्निटी, Fraternity), फ़ारसी में बिरादर और संस्कृत में भ्रातृ कहते हैं।

मुख्य सिद्धान्त

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विद्वानों और हाल ही में आनुवंशिक अध्ययन के अनुसार आर्य १८०० से १५०० ईसा पूर्व मध्य एशिया महाद्वीप से भारतीय भूखण्ड में प्रविष्ट हुए।[8] अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी इतिहासकारों ने भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया । जिससे उन्हे लगा कि भारत के मूल निवासी काले रंग के लोग थे। उसी काल में वैदिक आर्य भारत आ गए और अपनी संस्कृति का प्रसार प्रारम्भ किया। वे ऋग्वेद नामक ग्रंथ भी भारत लाए जो उनका सबसे प्राचीन ग्रंथ था।[9] अंग्रेजी विद्वान विलियम जोन्स के अनुसार संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, फ़ारसी, जर्मन आदि भाषाओं का मूल एक ही है।[10]

भाषा की दृष्टि से अंग्रेजी सिद्धांतानुसार संस्कृत तथा युरोपिय भाषाओं में बहुंत मेल हैं। भारतीय संस्कृति के देवी-देवताओं के नामों में भी यूरोपीय (ग्रीक-रोमन) मेल दिखे। साथ ही जैनेटिक जांच से भी भारतीय जातियों से यूरोप की मेल दिखी।[11] इससे भाषात्मक, जैनेटिक तथा सांस्कृतिक मेल संभव है।[12] इसके कुछ प्रमाण आधुनिक ईरानी पाठ्यपुस्तकों में प्राप्य हैं।

चन्द हज़ार साल पेश अज़ ज़माना माज़ीरा बुजुर्गी अज़ निज़ाद आर्या अज़ कोहहाय कफ काज़ गुज़िश्त: बर सर ज़मीने कि इमरोज़ मस्कने मास्त क़दम निहादन्द। ब चू आबो हवाय ई सरज़मीरां मुआफ़िक़ तब'अ ख़ुद याफ़्तन्द दरीं ज़ा मस्कने गुज़ीदन्द व आं रा बनाम ख़ेश ईरान ख़्यादन्द।[13]

आर्य आक्रमण

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इस उपसिद्धांत के अनुसार वैदिक संस्कृति भारतीय प्राचीन संस्कृति न होकर सिन्धु घाटी की संस्कृति भारत की प्राचीन संस्कृति है।[14] जो पूर्व से ही उन्नत संस्कृति थी, आर्यों ने उनपर आक्रमण कर दिया था। इस बात के प्रमाण तब मिले जब वहाँ सन् १९२० में खुदाई हुई। आर्यों की अधिक विकसितता के कारण हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो समाप्त हो गए। यह सिद्धान्त बहुंत समय तक मान्य रहा परन्तु कालान्तर के शोध के पश्चात् इसे खारिज़ कर दिया गया क्योंकि खुदाई से प्राप्त कंकालों में कहीं भी लड़ाई के चोंट आदि प्राप्य नहीं हैं। उनपर प्राकृतिक आपदा के संकेत हैं।

आज योरोप में इस सिद्धान्त को ख़ारिज़ किया चुका है, परन्तु पूर्ण रूप में नहीं। इस सिद्धान्त की आलोचना का विशेष कारण यह है कि सिद्धान्त पूर्णरूप से अंग्रेजी इतिहासकारों के द्वारा प्रतिपादित किया गया जिनका कहना था कि वह भारतीय तथा यूरोपीय अध्ययन के माध्यम से ही इस बात पर जोर दे रहे हैं।[15] इसको आगे बढ़ाने में चर्च के अधिकारियों (जैसे रॉबर्ट कॉल्डवेल आदि) और औपनिवेशिक हितों का बड़ा हाथ रहा था। ध्यान दें कि सिद्धान्त के मुख्य प्रस्तावकों में से एक, मैक्समूलर थे

आर्य आक्रमण या प्रयाण - विरोधी तर्क

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इस उपसिद्धांत के अनुसार, सिन्धु घाटी की संस्कृति भारत की प्राचीन संस्कृति है,[14] जो पुर्व से ही उन्नत संस्कृति थी और वैदिक आर्यों ने उनपर आक्रमण कर दिया था। आर्यों की अधिक विकसितता के कारण हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो समाप्त हो गए। यह सिद्धांत बहुंत समय तक मान्य रहा परंतु कालांतर के शोध के पश्चात् इसे खारिज़ कर दिया गया क्योंकि खुदाई से प्राप्त कंकालों में कहीं भी लड़ाई के चोंट आदि प्राप्य नहीं हैं। बाद में मैक्समुलर पर अनेक आरोप-प्रत्यारोप उनके लेखों के पक्षपातपूर्ण होने के कारण हुए । भारतीय विद्वानोंं के अनुसार वे यह सब अंग्रेजों के कहे अनुसार कर रहे थे । यह उनके द्वारा भेजे संदेशों में भी दीखता है -

It is the root of thir religion and to show them what the root is, I feel I sure it is the only way of uprooting all that have sprung from it during the last three thousand years.[16] (इसके जड़ को (नंगा) दिखा के ही सुनिश्चित किया जा सकता है कि इससे ३००० सालों में जो उगा है उसे कैसे उखाड़ें। )

भारतीय सचिव के नाम १६ दिसम्बर १८६८ के दिवस का पत्र भी इस बात का समर्थन करता है।

The Ancient Religion Of India Is Doomed. Now If Christianity Does Not Step In Whose Fault Will Be?[17] (भारत का प्राचीन धर्म झकझोर दिया गया है, अगर अब ईसाई धर्म (यानि मिशनरी) नहीं आते हैं तो किसका दोष होगा ?)

डीएनए शोधों में भी उत्तर-दक्षिण के लोगों में भिन्नता नहीं, समानता पाई गई ।

विरोधी तर्क के कुछ बिंदु

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भारत की स्वतंत्रता के बाद कई पुरातात्विक शोध हुए। इन शोधों और डीएनए के अध्ययन, भाषाओं की समरूपता आदि शोध इस सिद्धांत से मेल खाते है कुछ तर्क यहाँ दिए गए हैं

  • किसी प्रयाण या आक्रमण का उल्लेख न तो वेदों में और न ही उपनिषद, आरण्यक, दर्शन-ग्रंथों या पुराणों में मिलता है, या यहाँ तक कि न गाथा, संस्मरण आदि में भी नहीं । जबकि, रोमन गाथाओं में पूर्व की दिशा से हुए प्रयाण की याद और बाइबल में जोशुआ के पुस्तक में ऐसे छूटी हुई मातृभूमि की झलक मिलती है। यहूदी तालमुद में भी इसरायली लोगों को अपनी ज़मीन से असीरियाई शासकों द्वारा बेदखल करने और फिर दारा द्वारा पुनः अपने देश भेजे जाने का उल्लेख है । अगर ऐसा कोई आक्रमण या यहाँ तक कि प्रयाण (प्रवास) भी होता तो वेदों-पुराणों-ब्राह्मण ग्रंथों-उपनिषदों-दर्शनों-बौद्ध ग्रंथों आदि में उसका उल्लेख मिलता, लेकिन वो नहीं है।
  • ऋग्वेद के जिन शब्दों के आधार पर यूरोपीय और उनके अनुचर भारतीय विद्वान यह दिखाते थे, उनका मूल अर्थ कुछ और ही है । यह बात पारंपरिक वैदिक शब्दकोशों (निरुक्त, अमरकोश, स्कंदस्वामी भाष्य आदि) में मिलता है । परन्तु यूरोपीय प्रतिपादक इससे या तो अन���िज्ञ दीखते हैं या नज़रअंदाख्त । जैसे इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि को किसी प्रजाति का सेनापति कहना, वेदों के पारंपरिक अनुवाद-भावना से बहुत भिन्न है ।
  • भाषाई प्रमाण - भाषा की समरूपता के बारे में मिथक ये है कि संस्कृत और यूरोप (और ईरान) की भाषाओं में समानताएं हैं। हाँलांकि ये सच है कि कुछ शब्द एक जैसे हैं, साथ ही व्याकरण में तो समानता है, लेकिन भारत के अन्दर की भाषाओं में कई समानताए हैं। उदाहरण के लिए -
    • सहायक क्रियाओं का वाक्य का अन्त में आना। है, रहा है, था, होगा, हुआ है ये सब हिन्दी की सहायक क्रियाएं हैं - इनके तमिळ, बांग्ला या कन्नड़ अनुवाद भी अपने वाक्यों के अन्त में आते हैं। लेकिन अंग्रेज़ी में am, was, were, has आदि मुख्यतः अपने वाक्यों के मध्य में आते हैं।
(कर्ता-कर्म-क्रिया) इस क्रम में होते हैं,
    • Prepositions: संस्कृत और उत्तर-दक्षिण की सभी भारतीय भाषाओं में वाक्यों में अव्यय-विभक्ति संज्ञा के बाद आते हैं, लेकिन यूरोपीय भाषाओं में subject से पहले। जैसे अंग्रेज़ी में - From Home, On the table, Before Sunrise, लेकिन हिन्दी में घर से, टेबल पर, सूर्योदय से पहले आदि। ध्यान दीजिये कि अंग्रेज़ी में 'From' शब्द इसकी संज्ञा 'Home' से पहले आता है लेकिन हिन्दी का 'से', 'घर' के बाद । ऐसा उत्तर-से-दक्षिण तक भारत की सभी भाषाओं में है,
  • इस सिद्धांत के विरोधियों का तर्क है कि मिलते-जुलते शब्द व्यापार से आए होंगे। जैसे कि आधुनिक स्वाहिली (पूर्वी अफ़्रीका की भाषा) में कई शब्द अरबी से आए हैं, लेकिन भाषा एकदम अलग है। केनिया-तंज़ानिया के इन तटों पर अरब लोग बारहवीं सदी में आना शुरु हुए।

अतः आर्य आक्रमण के सिद्धांत पर विवाद होते ही रहते हैं।

सिद्धांत से सबसे बड़ी हानि भारतीय अनेकता के और बढ़ जाने से हुई। आर्यों को भारत से बाहर करने की मांग की गई जो कि मुस्लिम इण्डिया नामक पत्र में छपा।[18] इसके पश्चात् सर फ्रैंक एन्थॉनी ने ४ सितम्बर १९७७ को एक मांग की जिसके अनुसार संविधान के आठवे परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची से संस्कृत को निकाल देना चाहिये।[19] दलित और अनुसूचित संज्ञा भिन्नता के प्रदर्शक हैं। यह एक गृहयुद्ध सम हो गया। परंतु आज इससे आगे बढ़कर सत्य को जानने की आवश्यकता है।

समर्थन तथा आलोचना

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कई लोगों और हाल ही में आनुवंशिक अध्ययन ने इस सिद्धांत का समर्थन किया। साथ ही कई क्रांतिकारी जैसे बाल गंगाधर तिलक, के० एम० मुंशी जी ने भी समर्थन किया।[20]

समर्थनों के बाद भी अधिकतर भारतीय इतिहासकार इसे केवल फूट डालो राज़ करो की नीति का अंग मानते आए हैं। वहीं साहित्यकार इसमें अंग्रेज अनुवादकों के संस्कृत के अल्प ज्ञान को दोषी ठहराते हैं। क्योंकि व्याकरणिक दृष्टि से दस्यु, अनार्य जाति नहीं अपितु गुण वाचक है। जो नास्तिक थे उन्हें दस्यु या अनार्य (अनाड़ी) से सम्बोधित किया जाता था। वहीं कृष्णगर्भ मेघ तथा अनासः वर्षाकालिक शान्ति का प्रतीक है। ऐसा भारतीय संस्कृतज्ञों का दावा है।[21] इस सिद्धांत के आलोचकों का कहना है कि अगर संस्कृत विदेशी भाषा होती तो भारत के अधिकतर भाषाओं में इसका मेल नहीं होता। डाँ० वकांकर, टी बोरोव[22] मि० मुइर, एलफिन्स्टन[23] जैसे इतिहासकारों ने इस सिद्धांत की निंदा की है। क्योंकि न ही भारतीय ऐतिहासिक लेखों में, न ही युरोपीय साहित्य लेखों में ही इसका वर्णन है। अथवा पुराकथा रूप में भी ऐसी कथा उपलब्ध नहीं है।[24]

अध्ययन के निष्कर्ष, जिसे पूरा करने में तीन साल लगे, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के भारतीय पुरातत्वविदों और डीएनए विशेषज्ञों की एक टीम द्वारा गुरुवार को वैज्ञानिक पत्रिका 'सेल' में शीर्षक के तहत प्रकाशित किया गया था: 'एन एंशिएंट हड़प्पा जीनोम लीन एनेस्ट्री पादरीवादियों और ईरानी किसानों से '। यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भारतीय मूल रूप से एक आनुवांशिक पूल से आते हैं जो एक स्वदेशी प्राचीन सभ्यता से संबंधित है। निष्कर्ष राखीगढ़ी में एक दफन स्थल से खुदाई किए गए कंकालों में प्राचीन जीनोम के अध्ययन पर आधारित हैं, जो हिसार के पास 300 हेक्टेयर में फैले सबसे बड़े सिंधु घाटी स्थानों में से एक है। यह हड़प्पा काल के परिपक्व चरण का है, जो लगभग 2800-2300 ईसा पूर्व का है।

कागज तीन प्रमुख बिंदु बनाता है: कंकाल राखीगढ़ी से रहता है, जो एक आबादी से था, जो "दक्षिण एशियाई लोगों के लिए वंश का सबसे बड़ा स्रोत" है; "दक्षिण एशिया में ईरानी संबंधित वंशावली 12,000 साल पहले ईरानी पठार वंश से विभाजित"; "उपजाऊ अपराधियों के पहले किसानों ने बाद में दक्षिण एशियाइयों के लिए कोई वंश नहीं होने में योगदान दिया"।

इस पेपर के लेखक हैं पुणे के डेक्कन कॉलेज के वसंत शिंदे, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के वगेश नरसिम्हन और डेविड रीच और बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ पलायोसाइंसेस के नीरज राय। कागज सिंधु घाटी अवधि में ईरानी आनुवंशिक लक्षणों का दावा करता है और वर्तमान में दक्षिण एशियाई लोग बड़े पैमाने पर खेती के आगमन से बहुत पहले प्राचीन ईरानी और दक्षिण पूर्व एशियाई शिकारी इकट्ठा से आते हैं। "IVC में ईरानी संबंधित वंश वंश से पूर्व ईरानी किसानों, चरवाहों और शिकारी कुत्तों के लिए उनके वंशजों के अलग होने से पहले का है, जो इस परिकल्पना का खंडन करता है कि शुरुआती ईरानी और दक्षिण एशियाई लोगों के बीच साझा वंश पश्चिमी ईरानी किसानों के बड़े पैमाने पर प्रसार को दर्शाता है। पूर्व। इसके बजाय, ईरानी पठार और IVC के प्राचीन जीनोमों को शिकारी इकट्ठा करने वालों के विभिन्न समूहों से उतारा जाता है, जो लोगों के पर्याप्त आंदोलन से जुड़े बिना खेती शुरू करते हैं, “पेपर बताता है।

अध्ययन से पता चलता है कि खेती के कौशल को विकसित सिद्धांतों के विपरीत स्वदेशी रूप से विकसित किया गया है जो कि स्टेपीज़ और अनातोलियन किसानों के प्रवासियों के साथ आए थे। जैसा कि कागज में लिखा है: "(ये निष्कर्ष) दक्षिण एशिया में यूरोप की तरह, खेती का आगमन सीधे दुनिया के पहले किसानों के वंशजों द्वारा मध्यस्थता से नहीं किया गया था जो उपजाऊ वर्धमान में रहते थे। यूरोप के मामले में पूर्वी अनातोलिया में और दक्षिण एशिया के मामले में अभी तक अपरिचित स्थान पर - इन क्षेत्रों में लोगों के बड़े पैमाने पर आंदोलन के बिना खेती शुरू हुई।

कागज़ का दावा है: "सबूतों की कई लाइनें I6113 (राखीगढ़ी दफन डीएनए) की आनुवांशिक समानता का संकेत सिंधु परिधि सेलीन व्यक्तियों को रिवर्स दिशा के बजाय दक्षिण एशिया से जीन प्रवाह के कारण देती हैं।"

इन्हें भी देंखे

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सन्दर्भ

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  1. Beckwith 2009, पृ॰ 30.
  2. "Harappan and Aryan roots of Rig Veda". मूल से 22 सितंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 सितंबर 2019.
  3. "हम सब प्रवासी हैं, जगह जगह से आए और भारतीय बन गए: रिसर्च". मूल से 29 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
  4. "Examining the evidence for 'Aryan' migrations into India: The story of our ancestors and where we came from". मूल से 29 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
  5. "The Long Walk: Did the Aryans migrate into India? New genetics study adds to debate". मूल से 29 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
  6. "Aryan migration: Everything you need to know about the new study on Indian genetics". मूल से 29 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
  7. "आर्य बाहर से भारत आए थे: नज़रिया". मूल से 5 जनवरी 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 जनवरी 2019.
  8. Indo-Aryan Migration Theory Archived 2017-07-16 at the वेबैक मशीन, अंग्रेजी विकिपीडिया।
  9. आर्यों का आदिदेश, लेखक - लक्ष्मीदत्त दीक्षित (विद्यानन्द सरस्वती)
  10. Development of the Aryan Migration theory Archived 2017-07-16 at the वेबैक मशीन, विकिपीडिया पृष्ठ
  11. Fundamentals of the Indo-Aryan Migration theory Archived 2017-07-16 at the वेबैक मशीन, विकिपीडिया पृष्ठ।
  12. क्या आर्य युरोप से भारत आए?[मृत कड़ियाँ]
  13. आर्यों का आदिदेश पृ० १३
  14. मोहनजो-दड़ो से प्राप्त एक मुद्रा जिसमें वैदिक ऋचानुसार चित्र बना है, उसका विवरण कुछ इस प्रकार है "Photostat of plate no. CXII Seal No. 387 from the excavations of Mohenjo-Daro. (From Mohenjo-Daro And The Indus Civilization, Edited by Sir John Marshall, Cambridge 1931. इसमें चित्रित चित्र ऋग्वेद १|१६४|२० की ऋचा द्वा सुपर्णा... तथा श्रीमद्भागवत ११|११|०६ का श्लोक सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ... से मेल खाता है जो वैदिक तथा सिन्धु के बीच संबन्ध दर्शाता है।
  15. क्या आर्य युरोप से भारत आए?[मृत कड़ियाँ] Rbth.com
  16. Life and letters of Fredrick maxmueller, Vol. 1 Chap. XV, Page 34
  17. Ibid Vol 1 Chap. XVI Page 378
  18. मुस्लिम इण्डिया २७ मार्च, १९८५
  19. India Express 5/9/1977
  20. लोपामुद्रा लेखक के० एम० मुंशी
  21. आर्यों का आदिदेश पृ० २५
  22. "The aryan invasion of india is recorded as no written document and it cannot yet be treased archeologically." - Mr. T. Borrow -- Quoted from The early aryans published in cultural history of india edited by A. L. Basham, published by Clarandron Press Oxford 1975
  23. "Is there any allusion to the arya prior residance in any contry outside india" - Mr. Elphinstion -- History Of India Vol. 1
  24. Mr. Muir: Original Sanskrit Texts, Vol 2

25. सितम्बर 06, 2019, 08.25 AM, Economic times