ऐसी एक या एकाधिक बेलनाकार संरचनाओं को आधुनिक वेधशाला (Observatory) कहते हैं जिनके ऊपरी सिर पर घूमने वाला अर्धगोल गुंबद स्थित होता है। इन संरचनाओं में आवश्यकतानुसार अपवर्तक या परावर्तक दूरदर्शक रहता है। दूरदर्शक वस्तुत: वेधशाला की आँख होता है। खगोलीय पिंडों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आँकड़े एकत्रित करके उनका अध्ययन और विश्लेषण करने में इनका उपयोग होता है। कई वेधशालाएँ ऋतु की पूर्व सूचनाएँ भी देती हैं। कुछ वेधशालाओं में भूकंपविज्ञान और पार्थिव चुंबकत्व के संबंध में भी कार्य होता है।

ऐल्प्स की पहाड़ियो पर स्थित स्फ़िंक्स् वेधशाला

अनादि काल से ही मनुष्य सूर्य और चंद्रमा के उदय और आकाश में उनकी तथा तारों की आभासी रात्रिगति आदि आकाशीय घटनाओं पर आश्चर्य करता रहा है। इन गतियों से मानव ने धीरे-धीरे विभिन्न ऋतुओं का ज्ञान प्राप्त किया। चंद्रमा की कलाओं, सूर्य की स्थिति में क्रमिक विचलन, विशिष्ट तारों के उदय, सूर्य की ऊँचाई और उसके उदित तथा अस्त होने के स्थान में परिवर्तन को भी प्रेक्षित किया गया। इन प्रेक्षणों के आधार पर पंचांग तैयार किए गए। निरीक्षणों के आधार पर ग्रहणों की आवधिकता ज्ञात की गई। उदाहरण के लिए कालडियन (Chaldeans) लोगों ने 700 ई.पू. ही चांद्रचक्र (saros cycle) का अध्ययन किया था।

ये निरीक्षण केवल आँखों से ही नहीं किए जाते थे। शंकु (gnomon), या आदिम धूप घड़ी, को हम आदिम वेधशाला का आद्य उपकरण कह सकते हैं। मिस्रवासियों का साहुल, जिसे मेरखेट (Merkhet) कहते थे, दूसरा आद्य ज्योतिष उपकरण था। प्राचीन ज्योतिष उपकरणों में मिस्री क्लाइप्सीड्रा (Egyptian clypsedra), घटीयंत्र (hour clock), रेतघड़ी आदि प्रमुख हैं। नॉक्टरनल (Nocturnals) और ऐस्ट्रोलेब (Astrolabe, एक या अधिक चल भागोंवाली वृत्तीय चकती) वेधयंत्रों की सहायता से खगोलीय पिंडों की स्थिति ज्ञात की जाती थी। इन उपकरणों का उपयोग ई.पू. तीसरी शती में होता था।

अनेक प्राचीन पुरातात्विक स्मारकों का खोगोलीय महत्व है। लगभग 5,000 वर्ष पूर्व निर्मित मिस्र के पिरामिड निश्चित तारों के निर्देश में अनुस्थापित हैं। इंग्लैंड में स्टोनहेंज में 1800 ई.पू. निर्मित प्रस्तरस्तंभ सूर्य की दिशा के निर्देश में अनुस्थापित है। चीनी सम्राट् होंग-टी (Hoang-Ti) ने 4,500 वर्ष पूर्व खगोलीय पिंडों की गति के अध्ययनार्थ वेधशाला का निर्माण कराया था। ग्रीक ज्योतिबिंद, हिपार्कस (Hipparchus), ने 150 ई.पू. अंशांकित विशाल वृत्तों के प्रयोग से आकाशीय पिंडों की स्थिति के अध्ययन के लिए रोडस (Rhodes) द्वीप पर आर्मिली (Armillae), प्लिंथ (Plinth), डायोप्टर (Diopter) आदि अनेक साधन निर्मित किए।

नवीं शती में बगदाद में खलीफा-अल-मामूँ और 13 वीं शती में ईरान के मरागा में चंगेज खाँ के पौत्र हलागू खाँ ने विशाल वेधशालाओं का निर्माण कराया। समरकंद के अलूग वेग ने 1420 ई. के लगभग विशाल दीवार, क्वाद्रांत, वाली वेधशाला बनवाई। जर्मनी में कैसेल (Kassel) में 1561 ई. में घूर्णमान छत और समयांकन घड़ी युक्त वेधशाला पहली बार स्थापित हुई। कुछ समय बाद की वेधशालाओं में डेनमार्क के नरेश, फ्रेडरिक द्वितीय, के संरक्षण में स्थापित कोपेनहेगेन से लगभग 14 मील दूर ह्वीन (Hveen) द्वीप पर टाइको-ब्राहे (Tycho Brahe) की वेधशाला उल्लेखनीय है इसके निर्माण का आरंभ 1576 ई. में हुआ और इसका नाम उरानीबोर्ग (आकाश दुर्ग) रखा गया। टाइको और उसके शिष्यों ने 21 वर्षों तक खगोलीय पिंडों के निर्देशांक (उन्नतांश, दिगंश, विषुवदंश और क्रांति) संबंधी व्यापक प्रयोग किए। आकाश दुर्ग में सेंट जर्नबॉर्ग (St. Jernesborg, तारा दुर्ग), नामक दूसरी संरचना जोड़ी गई। इन वेधशालाओं में दूरदर्शी नहीं थे, किंतु विषुवतीय आरोपण (equatorial mounting) का महत्व समझा जा रहा था। उपकरण धातु और लकड़ी के होते थे। 1609 ई. में गैलीलियो ने आधुनिक ज्योतिष के मौलिक उपकरण, दूरदर्शक, का आविष्कार किया। लाइडेन में 1632 ई. में प्रकाशीय उपकरणों से युक्त सर्वप्रथम वेधशाला बनी। 1667-1671 ई. में पैरिस में नैशनल ऑब्ज़र्वेटरी बनी और 1675 ई. में ग्रीनिच में रॉयल आब्ज़रवेटरी स्थापित हुई, जिसका प्रथम राजज्योतिर्विद् फ्लैमस्टीड (Flamsteed) था। हेवीलियस (Hevilius) नामक ज्योतिर्विद् ने 1614 ई. में एक निज�� वेधशाला बनवाई। हेवीलियस ने भिन्न तरंगदैर्घ्य की किरणों को एक समतल में फ़ोकस करने के लिए 100 फुट फ़ोकस दूरी के लेंस से युक्त शक्तिशाली दूरदर्शक बनवाया।

आधुनिक वेधशालाओं के संबंध में कुछ कहने के पूर्व जयपुर के महाराज जयसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित वेधशालाओं का उल्लेख आवश्यक है। ये वेधशालाएँ दिल्ली, जयपुर, वाराणसी और मथुरा में हैं। दिल्ली की वेधशाला 1710 ई. में बनी और इसके पाठ्यांकों की जाँच के लिए बाद में दूसरे स्थानों पर वेधशालाओं का निर्माण हुआ। इन वेशालाओं में उन्नतांश, दिगंश, विषुवदंश्, क्रांति, घटी-कोण, आदि मापने के ज्योतिष उपकरण पत्थर, चूने आदि से बने हैं। दिल्ली की वेधशाला के उपकरण समर्थयंत्र, रामयंत्र, जयप्रकाशयंत्र और मिश्रयंत्र हैं। नियत यंत्रचक्र से, जो मिश्रयंत्र का एक भाग है, चाँद का समय निकाला जा सकता है। ऐसी चार और वेधशालाएँ जापान के नॉट्के (Notke), प्रशांत के सरित्चेन (Saritchen), ज्यूरिख और ग्रीनिच में हैं।

आधुनिक वेधशालाओं के संस्थापन और विकास प्रकाशीय काँच उद्योग की प्रगति के साथ-साथ चलते हैं। 17वीं शती के दूरदर्शक वर्णविपथन आदि अनेक कारणों से भी संतोषप्रद नहीं थे। क्राउन ओर फ्लिंट काँच के संयोजन से अवर्णक अभिदृश्यक (objective) बनने पर बडे द्वारक और कम फोकस दूरी के लेंस बनने लगे। 1825 ई. में रूस में स्थापित डॉरपैट (Dorpat) वेधशाला में दूरदर्शक का अभिदृश्यक फ्रॉनहोफर द्वारा घिसाहुआ तथा इंच व्यास का था। 1839 ई. में स्थापित रूस की पुलकोवा राज्य वेधशाला, यथार्थ उकरणों से सुसज्जित, उन दिनों की एक सर्वश्रेष्ठ वेधशाला, यथार्थ उकरणों से सुसज्जित, उन दिनों की एक सर्वश्रेष्ठ वेधशाला थी, जिसके अपवर्तक दूरदर्शक का अभिदृश्यक 15 इंच से अधिक व्यास का था। इस वेधशाला के पहले निदेशक विलहेल्स श्ट्रूवे (Wilhelm Struve) थे, जो इसी नाम के अनेक ज्योतिर्विदों के वंश के प्रधान पुरुष हैं। यह वेधशाला द्वितीय विश्वयुद्ध में लेनिनग्राड के घेरे में नष्ट हो गई और रूस की विज्ञान अकादमी की केंद्रीय वेधशाला के रूप में 1954 ई. में नए सिरे से बनकर तैयार हुई।

अभिदृश्यक के द्वारक को बढ़ाने की चेष्टा बहुत दिनों से चल रही थी। 1897 ई. में ऐलवान क्लार्क (Alvan Clark) ने अमरीका की यर्क्स वेधशाला के लिए सबसे बडा अभिदृश्यक लेंस 40 इंच व्यास का बनाया। इस दूरदर्शक में प्रकाश एकत्र करने की शक्ति मानव नेत्रों से 14,000 गुनी थी। इससे बड़े अपवर्तक दूरदर्शक के कभी बनने की संभावना नहीं प्रतीत होता है। यथार्थ घिसाई और पालिश की समुन्नत तकनीकी प्रविधियों के होते हुए भी अभिदृश्यक का वर्णविपथन के कारण एक निश्चित सीमा तक रखा जा सकता है। व्यास की वृद्धि से लेंस की मोटाई बढ़ती है। इससे लेंस की प्रकाश एकत्र करने की शक्ति की आनुपातिक वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इन्हीं दिनों लेंस तंत्र के स्थान पर परावर्ती दर्पण से दूरदर्शक बनाने की चेष्टा हो रही थी। न्यूटन ने 1688 ई. में इस प्रकार का पहला दूरदर्शक बनाया था। विलियम हर्शेल की प्रसिद्ध वेधशाला में 40 फुट लंबा और 48 इंच द्वारक का परावर्तक था। रॉस (Rosse) के अर्ल विलिय पार्सन्स ने 1845 ई. में 72 इंच व्यास और 52 फुट फोकस दूरी के दर्पण से परावर्तक बनाया। ये परावर्तक दर्पण स्पेक्युलम धातु (Speculum metal) के बने थे। रजत लेप के महीन फ़िल्म युक्त काँच के परवलयिक दर्पण के प्रयोग का प्रारंभ 20वीं शती में हुआ। बाद में ऐसे लेप के स्थान पर उच्च निर्वत में सत का ऐलुमिनीकरण होने लगा। इस तकनीक के विकास के फलस्वरूप अमरीका के कैलिफॉर्निया राज्य में, माउंट विल्सन वेधशाला में 1917 ई. में लगाए गए, 100 इंच परावर्तक के निर्माण में सफलता मिली। इस दूरदर्शक का नाम हुकर दूरदर्शक है, जो प्रकाश एकत्र करने में मनुष्य की आँखों से 90,000 गुना सशक्त कैलिफॉर्निया के माउंट पैलोमार वेधशाला में लगाए गए 200 इंच व्यासवाले हेल परावर्तक (Hale reflector) का 20 वर्षों के प्रयास के बाद 1948 ई. में निर्माण हुआ। 62,50,000 डॉलर की लागत से निर्मित इस दूरदर्शक का साज सहित भार 500 टन है और केवल दर्पण का भार टन है। इस दूरदर्शक में प्रकाश एकत्र करने की शक्ति मानव नेत्रों से 3,60,000 गुना अधिक है और इससे अंतरिक्ष में 10 अरब प्रकाशवर्ष की दूरी तक देखा जा सकता है। दूरदर्शक के दर्पण का प्रधान फोकस 54 फुट तथा केंद्र में स्थित 40 इंच व्यास के छिद्र के कारण कैसीग्रेनीय फोकस (Cassegrain focus) 263 फुट और कूडे फोकस (coude' focus) 492 फुट है।

इन परावर्तकों में प्रकाश अक्ष पर प्रतिबिंब तीक्ष्ण बनता है, किंतु कुछ दूर के बिदुओं पर वह धुँधला होता है, जिससे उपयोज्य क्षेत्र कम हो जाता है और घटकर कभी-कभी आधा अंश का रह जाता है। इस गंभीर बाधा का निराकरण श्मिट (Schmidt) द्वारा 1930 ई. में हुआ, जब उन्होंने गोलीय अवतल दर्पण के साथ-साथ एक जटिल किस्म के संशोधनपट्ट का व्यवहार किया। ऐसे उपकरण से 10 अंश तक के आकाशीय क्षेत्र का फोटोग्राफ लिया जा सकता है। ऐसा श्मिट दूरदर्शक माउंट पैलोमार में है, जिसका दर्पण 72 इंच व्यास का और संशोधनपट्ट 48 इंच द्वारक का है। 30 करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी तक के तारों को अंकित करने में सशक्त इस दूरदर्शी से सात वर्षों में पैलोमार से दिखाई पड़नेवाले आकाश के भाग का मानचित्र बनाया जा चुका है।

कुछ विशिष्ट वेधशालाओं में प्रकाशीय दूरदर्शक रूपी ज्योतिषनेत्रों से खगोलीय पिंडों की प्रकाशतरंगों के अध्ययन के स्थान पर रेडियो दूरदर्शक से उनकी रेडियो तरंगों का अंकन और अध्ययन किया जाता है। रेडियो दूरदर्शक पर धूल, धुंध, वर्षा, मेघ, दिन और रात का प्रभाव नहीं पड़ता, किंतु रेडियो तरंग प्रेषित न करनेवाले खगोलीय पिंडों के संबंध में इनसे कोई जानकारी नहीं प्राप्त हो सकती। इंग्लैंड में मैनचेस्टर के निकट जॉड्रेल तट पर पूर्णत: वहनीय (steerable), विशाल रेडियो दूरदर्शक है, जिसका रेडियो तरंग एकत्र करने का 250 फुट व्यास का कुंड परावर्तक (bowlreflector) है। यह रेडियो तरंगों को फोकस पर स्थित ऐंटैना पर एकत्र करता है। इससे बड़ा और हाल ही का बना रेडियो दूरदर्शक पश्चिमी वर्जीनिया (संयुक्त राज्य, अमरीका) में है, जिसका कुंड 600 फुट व्यास का है। रेडियो दूरदर्शक का एक विशिष्ट उपयोग कृत्रिम उपग्रहों से संकेत प्राप्त करके, उनके प्रक्षेपवक्र की लीक पकड़ना है। घूर्णमान गुंबदवाली परंपरागत वेधशालाओं के विपरीत, ये विशाल दूरदर्शक खुले मैदान में बिठाए जाते हैं तथा इनका नियंत्रण दूरस्थ कक्ष से होता है।

विविध उद्देश्य

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समस्त संसार में फैली ज्योतिष वेधशालाओं के उद्देश्य और कार्य बहुविध है। संयुक्त राज्य अमरीका, की नौसेनिक वेधशाला और ग्रीनिच वेधाशाला आदि, राष्ट्रीय वेधशालाओं में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारा आदि के निर्देशांकों का यथार्थ निर्धारण, पंचांग निर्माण, मानक समय संकेतों का पारेषण, उन्नतांश निर्धारण आदि कार्य होते हैं। कुछ वेधशालाएँ उपगूहन (occultations), ग्रहण, सौर प्रजावालाओं (solar flares), लंबनमापन आदि के अध्ययन का कार्य सहकारी आधार पर करती हैं। वेधशालाओं में खगोल यांत्रिकी आदि विषयों पर मौलिक अनुसंधान कार्य भी होता है, जिसमें यग्मक तंत्र, तारों का वर्णक्रमीय वर्गीकरण्, खगोलीय पिंडों का त्रैज्य वेग, फोटो वैद्युतिक फोटोमिति, अतिरिक्त आकाशगंगीय नीहारिकाएँ, तारों की आंतरिक रचना आदि का अध्ययन समाविष्ट है।

वेधशालाएँ ऐसे स्थानों पर स्थापित की जाती हैं, जहाँ का मौसम बहुत अच्छा होता है और मेघ, धुआँ, धूल से रहित दिनों की संख्या अधिक से अधिक होती है। संभव होने पर पहाड़ की चोटी या शैल आधार पर व��धशाला का। निर्माण होता है। वेधशाला से संबद्ध फोटोग्राफी कक्ष और वर्णक्रमीय प्रयोगशाला का होना आवश्यक है। कुछ वेधशालाएँ ज्योतिर्विज्ञान की नई खोजों का समाचार प्रसारित करती हैं। सौर वर्णक्रम, कॉस्मिक विकिरण आदि के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष वेधशाला स्थापित करने के अनेक प्रयत्न चल रहे हैं।

 
भारतीय खगोलीय वेधशाला, हानले (भारत)

भारतीय वेधशालाएँ

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भारत की वेधशालाओं में दक्षिण भारत में कोडाइकैनाल की खगोल-भौतिकीय वेधशाला विख्यात है। विगत लगभग अस्सी वर्षों से अधिक के सूर्य के दैनिक अभिलेख वहाँ प्राप्य हैं। वहाँ की वेधशाला उन वेधशाला श्रृखंलाओं में से एक है, जहाँ शुद्ध आवृत्ति पर रेडियो पारेषण के लिए सौर प्रक्षुब्धता का अध्ययन होता है। उत्तराखंड राज्य की नैनीताल स्थित वेधशाला में चरक्रांति तारों का अध्ययन होता है। हैदराबाद की निज़ामिया वेधशाला में तारों के त्रैज्य वेग संबंधी मापन किए जाते हैं। भारत सर्वेक्षण से संबंधित तीन अन्य वेधशालाओं में अक्षांश और भोगांश का निर्धारण होता है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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